IASbaba's Daily Current Affairs Analysis - हिन्दी
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(PRELIMS Focus)
श्रेणी: पर्यावरण
प्रसंग: केरल में गोल्डन जैकाल ने मानव-प्रधान परिदृश्यों के प्रति उल्लेखनीय अनुकूलनशीलता दिखाई है, तथा वे पारंपरिक जंगलों से परे कृषि भूमि, गांव के किनारों और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में पनप रहे हैं।
वे मानवीय गतिविधियों से उत्पन्न खाद्य स्रोतों, जैसे अपशिष्ट और पशुओं के मृत शरीर, का दोहन करते हैं, जिससे उनके लचीले आहार और प्रबल अपमार्जन क्षमता का प्रदर्शन होता है। यह पारिस्थितिक लचीलापन उन्हें पर्यावास विखंडन और क्षति से बचने में सक्षम बनाता है। हालाँकि, मानव बस्तियों के निकट उनकी बढ़ती उपस्थिति संभावित संघर्षों और रोग संचरण की चिंताओं को जन्म देती है, जिससे मानव-वन्यजीव अंतःक्रियाओं के प्रभावी प्रबंधन की आवश्यकता पर प्रकाश पड़ता है।
Learning Corner:
गोल्डन जैकाल (कैनिस ऑरियस)
आईयूसीएन स्थिति:
- निम्न चिंताजनक (LC)
वितरण:
- दक्षिण एशिया, मध्य पूर्व, उत्तर और पूर्वी अफ्रीका, तथा दक्षिण-पूर्वी यूरोप का मूल निवासी।
- भारत में, वे पूरे उपमहाद्वीप में – जंगलों और घास के मैदानों से लेकर ग्रामीण, कृषि और शहरी इलाकों तक पाए जाते हैं।
निवास स्थान:
गोल्डन जैकल्स विभिन्न प्रकार के निवास स्थानों में पाए जाते हैं, जिनमें शामिल हैं:
- शुष्क पर्णपाती वन
- झाड़ीदार भूमि
- घास के मैदान और सवाना
- मैंग्रोव और आर्द्रभूमि
- कृषि क्षेत्र
- अर्ध-शहरी और ग्रामीण क्षेत्र
प्रमुख विशेषताऐं:
- आकार: मध्यम आकार का कैनिड (औसतन 8-10 किग्रा)
- रंग: सुनहरे से लाल-भूरे रंग का फर
- आहार: सर्वाहारी और अवसरवादी – इसमें कृंतक, पक्षी, फल, कीड़े, सड़ा हुआ मांस और मानव खाद्य अपशिष्ट शामिल हैं
- व्यवहार : अकेले, जोड़े में या छोटे पारिवारिक समूहों में रह सकते हैं; अधिकतर रात्रिचर
- पारिस्थितिक भूमिका: महत्वपूर्ण सफाईकर्मी, कृंतक आबादी को नियंत्रित करने और सड़े हुए मांस को साफ करने में मदद करता है
संरक्षण संबंधी चिंताएँ:
- मानव-वन्यजीव संघर्ष (पशुधन शिकार, शहरी उपस्थिति)
- रोग संचरण (रेबीज, कैनाइन डिस्टेंपर)
- पर्यावास की हानि और विखंडन
स्रोत: द हिंदू
श्रेणी: विज्ञान और प्रौद्योगिकी
संदर्भ: भारत ने परमाणु रिएक्टरों के लिए एक महत्वपूर्ण घटक, घटे हुए भारी जल (D₂O) के उन्नयन हेतु अपनी पहली निजी परीक्षण सुविधा का उद्घाटन किया है। यह महाराष्ट्र के पालघर में स्थित है।
मुख्य तथ्य:
- यह सुविधा दाबित भारी जल रिएक्टरों (PHWRs) के लिए आवश्यक डी₂ओ को 99.9% शुद्धता तक उन्नत करने के लिए आवश्यक उपकरणों का परीक्षण करेगी।
- इससे पहले, घटकों का निर्माण और परीक्षण BARC द्वारा स्वयं किया जाता था; इस कदम का उद्देश्य समय में कम से कम दो वर्ष की कटौती करना है।
- TEMA इंडिया आसवन प्रक्रिया के लिए पुर्जों का निर्माण भी करेगा तथा तैनाती से पहले सही परिणाम सुनिश्चित करेगा।
- इस संयंत्र ने राजस्थान परमाणु विद्युत परियोजना (आरएपीपी-8) की इकाई 8 के लिए घटक पहले ही भेज दिए हैं।
- यह परियोजना 2047 तक 100 गीगावाट परमाणु क्षमता हासिल करने के भारत के लक्ष्य का समर्थन करती है।
- भारत में वर्तमान में 24 परमाणु रिएक्टर संचालित हैं जिनकी संयुक्त क्षमता 8,780 मेगावाट है, तथा और भी निर्माणाधीन हैं।
Learning Corner:
भारी जल (D₂O)
परिभाषा:
भारी जल, जल का एक रूप है जिसमें हाइड्रोजन परमाणुओं को ड्यूटेरियम (²H या D) से प्रतिस्थापित किया जाता है, जो हाइड्रोजन का एक स्थिर समस्थानिक है जिसमें प्रोटॉन के अतिरिक्त एक न्यूट्रॉन भी होता है।
प्रमुख विशेषताऐं:
- रासायनिक सूत्र: D₂O
- स्वरूप: साधारण जल जैसा दिखता है लेकिन लगभग 10% अधिक सघन होता है
- गैर रेडियोधर्मी
उपयोग:
- मुख्य रूप से दबावयुक्त भारी जल रिएक्टरों (PHWRs) में मॉडरेटर/ मंदक और शीतलक के रूप में उपयोग किया जाता है
- परमाणु विखंडन श्रृंखला प्रतिक्रिया को बनाए रखने के लिए न्यूट्रॉन को धीमा कर देता है
- वैज्ञानिक अनुसंधान और आइसोटोप उत्पादन में भी उपयोग किया जाता है
परमाणु ऊर्जा में महत्व:
- न्यूट्रॉन अवशोषण को कम करके न्यूट्रॉन अर्थव्यवस्था को बनाए रखता है
- बिना संवर्धन के ईंधन के रूप में प्राकृतिक यूरेनियम के उपयोग को सक्षम बनाता है
शुद्धता की आवश्यकता:
- रिएक्टरों में प्रभावी ढंग से कार्य करने के लिए 99.9% शुद्ध होना आवश्यक है
- समय के साथ संदूषित हो जाता है और आसवन या अन्य तरीकों से पुनः उन्नत करने की आवश्यकता होती है
भारत का संदर्भ:
- भारत में भारी जल का उपयोग पीएचडब्ल्यूआर में बड़े पैमाने पर किया जाता है
- BARC भारी जल उत्पादन और उन्नयन की देखरेख करता है
- अब, टेमा इंडिया जैसी निजी फर्में भी परीक्षण और प्रक्रियाओं के उन्नयन में योगदान दे रही हैं
सुरक्षा:
- कम मात्रा में गैर विषैला, लेकिन अधिक मात्रा में पीने के लिए उपयुक्त नहीं
- रेडियोधर्मी नहीं है, लेकिन परमाणु सुविधाओं में सावधानी से संभाला जाता है
स्रोत: द इंडियन एक्सप्रेस
श्रेणी: भूगोल
संदर्भ: मानसून मध्य-मौसम में – भारत में सामान्य से 8% अधिक वर्षा दर्ज की गई
28 जुलाई, 2025 तक, भारत के दक्षिण-पश्चिम मानसून ने अच्छा प्रदर्शन किया है, 1 जून से 28 जुलाई तक सामान्य से 8% अधिक (440.1 मिमी) वर्षा हुई है। अधिकांश क्षेत्रों में सामान्य या सामान्य से अधिक वर्षा दर्ज की गई, सिवाय पूर्वी और पूर्वोत्तर भारत के, जहाँ 23% की कमी देखी गई।
क्षेत्रीय वर्षा (1 जून-28 जुलाई):
- मध्य भारत: 574.4 मिमी (+24%)
- उत्तर-पश्चिम भारत: 447.8 मिमी (+6.9%)
- दक्षिण प्रायद्वीप: 351.8 मिमी (+1.6%)
- पूर्व और उत्तर-पूर्व: 316.9 मिमी (−23%)
प्रमुख बिंदु:
- पंजाब, बिहार, सिक्किम, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश और मेघालय में लगातार बारिश की कमी देखी गई है।
- जुलाई सबसे महत्वपूर्ण मानसून महीना है और इसमें अब तक सामान्य से 5.4% अधिक वर्षा हुई है।
- बंगाल की खाड़ी में लगातार बनी निम्न दाब प्रणालियों के कारण भारत के अधिकांश भागों में लगातार वर्षा हुई।
Learning Corner:
मानसून
परिभाषा:
मानसून, पवनों के मौसमी परिवर्तन और वर्षा में बदलाव को दर्शाता है। दक्षिण एशिया में, यह मुख्य रूप से दक्षिण-पश्चिम मानसून को दर्शाता है, जो भारत में वार्षिक वर्षा का अधिकांश भाग लाता है।
भारत में मानसून के प्रकार :
- दक्षिण-पश्चिम मानसून (जून-सितंबर):
- भारत की वार्षिक वर्षा का लगभग 75% लाता है
- भूमि और महासागर के भिन्न-भिन्न तापन के कारण
- दो शाखाओं में विभाजित: अरब सागर शाखा और बंगाल की खाड़ी शाखा
- पूर्वोत्तर मानसून (अक्टूबर-दिसंबर):
- मुख्य रूप से दक्षिण-पूर्वी भारत (तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश के कुछ हिस्से) को प्रभावित करता है
मानसून का महत्व:
- कृषि: चावल, मक्का और दालों जैसी खरीफ फसलों को समर्थन प्रदान करता है
- जल संसाधन: नदियों, झीलों और भूजल को पुनः भरता है
- अर्थव्यवस्था: ग्रामीण मांग, खाद्य सुरक्षा और जल विद्युत पर प्रभाव
मानसून को प्रभावित करने वाले कारक:
- एल नीनो और ला नीना घटनाएँ
- हिंद महासागर द्विध्रुव (IOD)
- पश्चिमी विक्षोभ
- बंगाल की खाड़ी में निम्न दबाव प्रणालियाँ और अवदाब
चुनौतियाँ:
- असमान वितरण बाढ़ या सूखे का कारण बनता है
- देरी से शुरुआत या वापसी से बुवाई चक्र प्रभावित होता है
- जलवायु परिवर्तन से मानसून के व्यवहार में अनिश्चितता बढ़ रही है
स्रोत : इंडियन एक्सप्रेस
श्रेणी: राजनीति
प्रसंग: एनईपी के पांच साल पूरे हुए
इसने क्या कार्य किया है:
- स्कूल पाठ्यक्रम में बदलाव: 10+2 प्रणाली की जगह 5+3+3+4 प्रणाली लागू की जा रही है। एनसीईआरटी ने कक्षा 1-8 के लिए नई पुस्तकें प्रकाशित की हैं, जिनमें अनुभवात्मक शिक्षा पर ज़ोर दिया गया है।
- प्रारंभिक बाल्यावस्था शिक्षा: एनसीईआरटी की जादुई पिटारा जैसी सामग्री के साथ प्री-प्राइमरी शिक्षा को मजबूत किया जा रहा है।
- आधारभूत शिक्षण फोकस: कक्षा 3 तक पढ़ने और गणित कौशल सुनिश्चित करने के लिए समझ और संख्यात्मकता के साथ पढ़ने में दक्षता के लिए राष्ट्रीय पहल (निपुण भारत) शुरू की गई।
- शैक्षणिक क्रेडिट प्रणाली: राष्ट्रीय क्रेडिट फ्रेमवर्क लचीले क्रेडिट हस्तांतरण और पाठ्यक्रम प्रवेश/निकास की अनुमति देता है।
- सीयूईटी (कॉमन यूनिवर्सिटी एंट्रेंस टेस्ट): स्नातक प्रवेश के लिए एक सामान्य प्रवेश परीक्षा के रूप में 2022 में लागू किया गया।
- विदेशों में भारतीय परिसर: आईआईटी और आईआईएम ने अफ्रीका और खाड़ी देशों में अपने परिसर स्थापित कर लिए हैं; विदेशी विश्वविद्यालय भारत आ रहे हैं।
क्या प्रगति पर है:
- बोर्ड परीक्षा में बदलाव: 2026 से, सीबीएसई कक्षा 10 के छात्रों को विषय चुनने और वर्ष में दो बार बोर्ड परीक्षा देने की अनुमति देगा।
- समग्र रिपोर्ट कार्ड: एनसीईआरटी के अंतर्गत परख, आत्म-मूल्यांकन और कौशल पर केन्द्रित आकलन विकसित कर रहा है।
- चार वर्षीय स्नातक डिग्री: बुनियादी ढांचे की कमी के कारण धीमी गति से शुरू की जा रही है।
क्या अटका हुआ है और क्यों?
- त्रिभाषा फार्मूला: यह अभी भी विवादास्पद है; तमिलनाडु जैसे कुछ राज्य हिंदी थोपे जाने का विरोध करते हैं।
- अध्यापक शिक्षा में सुधार: 4 वर्षीय एकीकृत बी.एड. पाठ्यक्रम की घोषणा की गई, लेकिन अभी तक इसे लागू नहीं किया गया।
- यूजीसी के प्रतिस्थापन में देरी: भारतीय उच्च शिक्षा आयोग (एचईसीआई) विधेयक अभी भी लंबित है।
- स्कूलों में मातृभाषा: प्री-प्राइमरी से कक्षा 5 तक कार्यान्वयन आंशिक है।
- स्कूलों में अभी तक नाश्ता नहीं: वित्त मंत्रालय ने स्कूलों के लिए नाश्ते के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया।
- केंद्र-राज्य विभाजन: केरल, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों ने कई प्रमुख सुधारों का विरोध किया है।
Learning Corner:
भारत में राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) का इतिहास
राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) शिक्षा प्रणाली के विकास के मार्गदर्शन हेतु भारत का विज़न दस्तावेज़ है। स्वतंत्रता के बाद से, भारत में तीन प्रमुख एनईपी लागू हो चुकी हैं:
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1968
- पहली एनईपी, कोठारी आयोग (1964-66) की सिफारिशों पर आधारित।
- 14 वर्ष तक की आयु के सभी बच्चों के लिए निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा पर जोर दिया गया।
- त्रिभाषा फार्मूला, शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार और समान शिक्षा अवसरों की वकालत की।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 (1992 में संशोधित)
- इसे प्रधानमंत्री राजीव गांधी द्वारा प्रस्तुत किया गया तथा बाद में 1992 में पी.वी. नरसिम्हा राव के कार्यकाल में इसमें संशोधन किया गया।
- असमानताओं को दूर करने, महिलाओं की शिक्षा और शिक्षक शिक्षा में सुधार पर ध्यान केंद्रित किया गया।
- ऑपरेशन ब्लैकबोर्ड, नवोदय विद्यालय और प्रोग्राम ऑफ एक्शन (1992) की शुरुआत की।
- व्यावसायिकीकरण, खुली शिक्षा प्रणाली (open learning systems) और बाल-केंद्रित शिक्षा पर जोर दिया गया ।
स्रोत : द इंडियन एक्सप्रेस
श्रेणी: अर्थशास्त्र
संदर्भ: सरकार ‘जीवन निर्वाह मजदूरी’ पर काम कर रही है
प्रमुख बिंदु:
- वर्तमान मुद्दा:
- औपचारिक रोजगार में महिलाओं की भागीदारी के लिए कम वेतन एक प्रमुख बाधा है।
- 54% ब्लू- और ग्रे-कॉलर महिला कर्मचारी वेतन से नाखुश हैं; 80% ₹20,000/माह से कम कमाती हैं।
- उच्च लागत (परिवहन, बच्चों की देखभाल, देखभाल, प्रवासन) और कम वेतन के कारण कई महिलाएं कार्यबल से बाहर हो जाती हैं।
- वर्तमान सरकारी पहल:
- श्रम एवं रोजगार मंत्रालय “जीवन निर्वाह मजदूरी” को परिभाषित करने पर काम कर रहा है – जो एक ऐसी मजदूरी है जो न्यूनतम मजदूरी से आगे जाती है और आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल और पोषण को ध्यान में रखती है।
- इसका उद्देश्य लैंगिक असमानता को दूर करना है, विशेष रूप से निम्न महिला श्रम बल भागीदारी दर (एलएफपीआर) में, जो कि मात्र 32% है (पुरुषों के लिए 77% की तुलना में)।
- सर्वेक्षण अंतर्दृष्टि:
- यह सर्वेक्षण 10,000 से अधिक महिलाओं, विशेषकर पेरी-अर्बन क्षेत्रों और विनिर्माण क्षेत्रों में, के सर्वेक्षण पर आधारित है।
- वर्तमान आय मानकों के प्रति अत्यधिक असंतोष प्रदर्शित होता है।
- चिह्नित की गई चुनौतियाँ:
- महिलाओं की कार्यबल में भागीदारी में बाधा आती है:
- अपर्याप्त आय,
- सहायक सेवाओं (जैसे बाल देखभाल) का अभाव,
- सुरक्षा और परिवहन मुद्दे,
- अनुपयुक्त नौकरी समय (जैसे रात्रि पाली)।
- महिलाओं की कार्यबल में भागीदारी में बाधा आती है:
- नीति निर्देश:
- जीवन निर्वाह मजदूरी राज्य-विशिष्ट होगी।
- नियोक्ताओं और कर्मचारियों के बीच “सामाजिक संवाद” बनाने पर जोर।
Learning Corner:
भारत में मजदूरी के प्रकार
- न्यूनतम वेतन (Minimum Wage)
- श्रमिकों को कानूनी रूप से देय न्यूनतम पारिश्रमिक ।
- न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948 के तहत केंद्र या राज्य सरकार द्वारा निर्धारित ।
- राज्यों, कौशल स्तर (कुशल/अकुशल) और उद्योगों के अनुसार भिन्न-भिन्न होता है।
- बुनियादी जीविका (भोजन, आश्रय, वस्त्र) सुनिश्चित करता है।
- उचित वेतन (Fair Wage)
- न्यूनतम मजदूरी से अधिक, लेकिन जीवन निर्वाह मजदूरी से कम ।
- उद्योग की भुगतान क्षमता और जीवन स्तर पर विचार किया जाता है।
- इसका उद्देश्य श्रमिकों की आवश्यकताओं और नियोक्ताओं की वित्तीय स्थिति के बीच संतुलन बनाना है।
- जीवन निर्वाह योग्य मजदूरी (Living Wage)
- आदर्श वेतन, जो न केवल बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा करता है बल्कि शिक्षा, स्वास्थ्य, बीमा, परिवहन और कुछ आराम भी प्रदान करता है ।
- भारत में अभी तक इसे कानूनी रूप से लागू नहीं किया गया है, लेकिन कार्यान्वयन के लिए विचाराधीन है।
- जीवन की गुणवत्ता में सुधार लाने और महिलाओं की कार्यबल भागीदारी को प्रोत्साहित करने के लिए डिज़ाइन किया गया ।
- आवश्यकता-आधारित न्यूनतम वेतन
- 15वें भारतीय श्रम सम्मेलन (1957) द्वारा अनुशंसित और 1992 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा स्वीकार किया गया ( रेप्टाकोस ब्रेट मामला) ।
- कैलोरी सेवन, कपड़े, आवास किराया, शिक्षा और अन्य आवश्यक चीजों के आधार पर।
- न्यूनतम मजदूरी का अधिक यथार्थवादी और मानवीय संस्करण।
- वैधानिक मजदूरी बनाम बाजार मजदूरी
- वैधानिक वेतन : कानून द्वारा अनिवार्य (जैसे, न्यूनतम वेतन)।
- बाजार मजदूरी : श्रम बाजार में मांग और आपूर्ति द्वारा निर्धारित (अक्सर कुशल क्षेत्रों के लिए अधिक)।
स्रोत: द इंडियन एक्सप्रेस
(MAINS Focus)
परिचय (संदर्भ)
आरबीआई द्वारा जारी वित्तीय समावेशन सूचकांक (एफआई-इंडेक्स) के अनुसार, देश भर में वित्तीय समावेशन मार्च 2025 में 67 हो गया, जो मार्च 2024 में 64.2 था।
इसलिए, इस लेख में हम वित्तीय समावेशन से जुड़ी अवधारणाओं का विश्लेषण कर रहे हैं।
वित्तीय समावेशन क्या है?
- वित्तीय समावेशन को कमजोर वर्गों और निम्न आय वर्ग जैसे संवेदनशील समूहों को किफायती लागत पर वित्तीय सेवाओं और समय पर तथा पर्याप्त ऋण तक पहुंच सुनिश्चित करने की प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।
- इनमें न केवल बैंकिंग उत्पाद बल्कि बीमा और इक्विटी उत्पाद जैसी अन्य वित्तीय सेवाएं भी शामिल हैं
- आरबीआई ने वित्तीय समावेशन के लिए राष्ट्रीय रणनीति के छह रणनीतिक उद्देश्यों की पहचान की:
-
- वित्तीय सेवाओं तक सार्वभौमिक पहुँच,
- वित्तीय सेवाओं के बुनियादी तत्व प्रदान करना,
- आजीविका और कौशल विकास तक पहुंच,
- वित्तीय साक्षरता और शिक्षा,
- ग्राहक संरक्षण और शिकायत निवारण, और
- प्रभावी समन्वय
सतत विकास में वित्तीय समावेशन की भूमिका
- वित्तीय समावेशन 17 सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) में से 7 को प्राप्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है ।
- यह आर्थिक विकास को बढ़ावा देता है , रोजगार सृजन में सहायक होता है , तथा गरीबी कम करने में सहायता करता है ।
- ऋण, बचत, बीमा और डिजिटल भुगतान तक पहुंच प्रदान करके , यह छोटे व्यवसायों को बढ़ने , रोजगार सृजन और उत्पादकता बढ़ाने में मदद करता है ।
- बीमा तक पहुंच लोगों को वित्तीय झटकों से बचाती है, तथा उन्हें आर्थिक जोखिम उठाने का विश्वास दिलाती है।
- यह महिलाओं को वित्तीय प्रबंधन करने, व्यवसाय शुरू करने और निर्णय लेने की उनकी शक्ति में सुधार करने के लिए उपकरण देकर उन्हें सशक्त बनाता है, जिससे लिंग अंतराल को कम करने में मदद मिलती है ।
- यह लोगों और व्यवसायों को सतत प्रथाओं को अपनाने , जलवायु-अनुकूल प्रौद्योगिकियों में निवेश करने और प्राकृतिक आपदाओं से तेजी से उबरने में सक्षम बनाकर जलवायु लचीलापन बनाता है ।
- बैंक खातों के बिना 80% से अधिक वयस्क जलवायु-संवेदनशील क्षेत्रों में रहते हैं, जिससे आर्थिक और पर्यावरणीय सततता दोनों के लिए वित्तीय समावेशन महत्वपूर्ण हो जाता है।
वित्तीय समावेशन सूचकांक क्या है?
- यह भारत में वित्तीय समावेशन के स्तर को मापने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) द्वारा बनाया गया एक समग्र सूचकांक है।
- मार्च 2021 को समाप्त होने वाले वित्तीय वर्ष के लिए अगस्त 2021 में प्रकाशित किया गया था ।
- सूचकांक में पांच प्रमुख क्षेत्रों के आंकड़े शामिल हैं : बैंकिंग, निवेश, बीमा, डाक सेवाएं और पेंशन।
- स्कोर 0 से 100 तक होता है :
-
- 0 = पूर्ण वित्तीय बहिष्करण
- 100 = पूर्ण वित्तीय समावेशन
- सूचकांक में अलग-अलग भार वाले तीन प्रमुख भाग हैं:
-
- पहुँच (35%) – सेवाओं की उपलब्धता (जैसे बैंक शाखाएँ, एटीएम)
- उपयोग (45%) – लोग कितनी बार वित्तीय सेवाओं का उपयोग करते हैं
- गुणवत्ता (20%) – इसमें शामिल हैं: वित्तीय साक्षरता, ग्राहक संरक्षण और सेवा की गुणवत्ता और निष्पक्षता
वित्तीय समावेशन सूचकांक 2025: आंकड़े
- वित्तीय वर्ष 2025 के लिए एफआई सूचकांक में सुधार हुआ है और यह वित्तीय वर्ष 2024 के 64.2 प्रतिशत की तुलना में 67 प्रतिशत पर है।
- आरबीआई के अनुसार, वित्त वर्ष 2025 में एफआई सूचकांक में सुधार मुख्य रूप से उपयोग और गुणवत्ता आयामों के कारण है, जो वित्तीय समावेशन की गहनता और निरंतर वित्तीय साक्षरता पहल को दर्शाता है।
वित्तीय समावेशन के लिए सरकार की प्रमुख पहल
वित्तीय समावेशन वैश्विक स्तर पर नीति निर्माताओं और सरकारों द्वारा असमानताओं को कम करने, निचले स्तर पर लोगों की आजीविका को मजबूत करने और विकास को बढ़ावा देने के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला एक प्रमुख उपकरण रहा है।
कुछ महत्वपूर्ण योजनाएँ इस प्रकार हैं:
- प्रधान मंत्री जन धन योजना (पीएमजेडीवाई):
- इसे 2014 में वित्तीय समावेशन के मिशन के साथ शुरू किया गया था, ताकि किफायती तरीके से वित्तीय सेवाओं, जैसे बुनियादी बचत और जमा खाते, धन प्रेषण, ऋण, बीमा, पेंशन तक पहुंच सुनिश्चित की जा सके।
- पीएमजेडीवाई के अंतर्गत खाता खोलने का कोई शुल्क नहीं है, खाता रखरखाव का कोई शुल्क नहीं है, तथा न्यूनतम शेष राशि पर कोई शुल्क नहीं है।
- इस योजना की अन्य प्रमुख विशेषताएं हैं निःशुल्क रुपे डेबिट कार्ड, जिसमें 2 लाख रुपये का दुर्घटना बीमा कवर तथा 10,000 रुपये तक की ओवरड्राफ्ट सुविधा शामिल है।
- पीएमजेडीवाई खाते प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण (डीबीटी), प्रधान मंत्री जीवन ज्योति बीमा योजना (पीएमजेजेबीवाई), प्रधान मंत्री सुरक्षा बीमा योजना (पीएमएसबीवाई), अटल पेंशन योजना (एपीवाई), माइक्रो यूनिट्स डेवलपमेंट एंड रिफाइनेंस एजेंसी बैंक (मुद्रा) योजना के लिए पात्र हैं।
- 9 जुलाई 2025 तक, 55.83 करोड़ से ज़्यादा खाते खोले जा चुके हैं। ये खाते लोगों को सरकारी लाभों तक सीधी पहुँच और पैसे बचाने का एक सुरक्षित ज़रिया प्रदान करते हैं।
- डिजिटल इंडिया कार्यक्रम
- इसे 2015 में भारत को डिजिटल रूप से सशक्त समाज और ज्ञान अर्थव्यवस्था में बदलने के दृष्टिकोण के साथ शुरू किया गया था।
- इसमें एक ही कार्यक्रम के अंतर्गत विभिन्न पहल शामिल हैं, जिनमें से प्रत्येक का लक्ष्य भारत को ज्ञान अर्थव्यवस्था बनने के लिए तैयार करना तथा संपूर्ण सरकार की समन्वित एवं समन्वित भागीदारी के माध्यम से नागरिकों तक सुशासन पहुंचाना है।
- भारत इंटरफेस फॉर मनी (भीम) ऐप, वस्तु एवं सेवा कर नेटवर्क (जीएसटीएन), प्रधानमंत्री ग्रामीण डिजिटल साक्षरता अभियान (पीएमजीदिशा), आरोग्य सेतु ऐप, डिजिटल इंडिया भाषिनी और ओपन नेटवर्क फॉर डिजिटल कॉमर्स (ओएनडीसी) डिजिटल इंडिया कार्यक्रम के तहत कुछ पहल हैं।
- भारत का यूनिफाइड पेमेंट्स इंटरफ़ेस (UPI) अब विश्व की नंबर एक रियल-टाइम भुगतान प्रणाली भी बन गया है। इसने दैनिक लेनदेन के मामले में वीज़ा को पीछे छोड़ते हुए बढ़त बना ली है। यूपीआई हर दिन 64 करोड़ से ज़्यादा लेनदेन संभालता है, जबकि वीज़ा 63 करोड़ 90 लाख लेनदेन संभालता है। (PIB)
- प्रधानमंत्री जीवन ज्योति बीमा योजना (पीएमजेजेबीवाई):
- यह एक वर्षीय जीवन बीमा योजना है जिसका वर्ष दर वर्ष नवीनीकरण किया जा सकता है।
- यह किसी भी कारण से मृत्यु होने पर दो लाख रुपये का कवरेज प्रदान करता है और यह 18 से 50 वर्ष की आयु के उन लोगों के लिए उपलब्ध है जिनके पास बैंक खाता है।
- आधार समावेशन:
- वित्तीय समावेशन का आधार स्तंभ JAM (जन धन, आधार, मोबाइल) त्रिमूर्ति है, जिसने प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण के कवरेज का विस्तार किया है।
- अपनी बायोमेट्रिक पहचान प्रणाली ‘आधार’ के कार्यान्वयन के माध्यम से सरकार ने बैंक खाते खोलने की आसान पहुंच को सक्षम किया है, और इस प्रकार वित्तीय समावेशन को बढ़ावा मिला है।
- अटल पेंशन योजना:
- भारत सरकार द्वारा 2015 में शुरू की गई यह योजना विशेष रूप से असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों पर लक्षित है, जिनकी औपचारिक पेंशन योजनाओं तक अक्सर पहुंच नहीं होती।
- एपीवाई श्रमिकों को अपनी सेवानिवृत्ति के लिए स्वैच्छिक बचत करने के लिए प्रोत्साहित करता है, जिससे सुरक्षित वित्तीय भविष्य सुनिश्चित होता है।
- एपीवाई के अंतर्गत, अंशदाताओं को उनके अंशदान के आधार पर, 60 वर्ष की आयु में 1000 रुपये प्रति माह, 2000 रुपये प्रति माह, 3000 रुपये प्रति माह, 4000 रुपये प्रति माह और 5000 रुपये प्रति माह की निश्चित न्यूनतम पेंशन मिलेगी। यह पेंशन एपीवाई में शामिल होने की आयु पर आधारित होगी। एपीवाई में शामिल होने की आयु सीमा 18 से 40 वर्ष है।
- प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना (पीएमएसबीवाई):
- यह एक वर्षीय व्यक्तिगत दुर्घटना बीमा योजना है, जिसका वार्षिक नवीनीकरण किया जा सकता है।
- यह दुर्घटना के कारण मृत्यु/विकलांगता के लिए कवरेज प्रदान करता है और यह 18 से 70 वर्ष की आयु के लोगों के लिए उपलब्ध है, जिनके पास बैंक खाता है और जो इसमें शामिल होने और ऑटो-डेबिट सक्षम करने के लिए अपनी सहमति देते हैं।
भारत में वित्तीय समावेशन की प्रमुख चुनौतियाँ
- कम वित्तीय जागरूकता: कई लोग, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में, बैंकिंग, बीमा और ऋण के लाभों से अनभिज्ञ हैं, जिसके कारण औपचारिक वित्त में उनकी भागीदारी कम है।
- कमजोर बुनियादी ढांचा: दूरदराज के क्षेत्रों में बैंक शाखाओं, एटीएम, विश्वसनीय बिजली और इंटरनेट की कमी के कारण वित्तीय सेवाओं तक पहुंच सीमित हो जाती है।
- डिजिटल अंतराल: कई लोगों के पास स्मार्टफोन, इंटरनेट तक पहुंच या डिजिटल वित्तीय उपकरणों का उपयोग करने का कौशल नहीं है, जिससे ऑनलाइन सेवाओं का उपयोग करना कठिन हो जाता है।
- उच्च वितरण लागत: दूरस्थ स्थानों पर सेवा प्रदान करने में बैंकों की लागत अधिक होती है, जिससे प्रायः यह वित्तीय रूप से अव्यवहारिक हो जाता है।
- विश्वास की कमी: बैंकों के साथ कम अनुभव या नकारात्मक अतीत वाले लोग अक्सर औपचारिक संस्थाओं के साथ जुड़ने में हिचकिचाते हैं।
- भाषा संबंधी बाधाएँ: बैंकिंग सामग्री और ऐप्स में स्थानीय भाषाओं का सीमित उपयोग गैर-अंग्रेजी भाषियों के लिए बाधाएँ उत्पन्न करता है।
- लैंगिक अंतर: सांस्कृतिक और सामाजिक मानदंड अक्सर महिलाओं की बैंकिंग सेवाओं तक पहुंच को प्रतिबंधित करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप कम महिलाएं ही बैंक खाते रखती हैं या उनका उपयोग करती हैं।
- नकदी-चालित अनौपचारिक अर्थव्यवस्था: नकदी और अनौपचारिक लेनदेन पर भारी निर्भरता डिजिटल और औपचारिक वित्तीय साधनों को अपनाने की गति को धीमा कर देती है।
- निष्क्रिय खाते: पीएमजेडीवाई जैसी योजनाओं के तहत खोले गए कई खाते निष्क्रिय हैं, जिससे पहुंच और उपयोग के बीच अंतर दिखाई देता है।
- सीमित ऋण पहुंच: कम आय वाले व्यक्तियों और अनौपचारिक व्यवसायों को अक्सर क्रेडिट इतिहास या उचित दस्तावेज की कमी के कारण किफायती ऋण प्राप्त करने में संघर्ष करना पड़ता है।
- जटिल विनियम: वित्तीय रूप से वंचित लोगों के लिए केवाईसी और अन्य अनुपालन मानदंडों का पालन करना कठिन हो सकता है, साथ ही सेवा प्रदाताओं के लिए भी चुनौतीपूर्ण हो सकता है।
ये बाधाएं समग्र समाधानों की आवश्यकता को उजागर करती हैं – जिसमें बेहतर बुनियादी ढांचे, शिक्षा, विश्वास निर्माण, लैंगिक समावेशन और सरल डिजिटल उपकरणों का संयोजन शामिल हो – ताकि पूरे भारत में वित्तीय समावेशन को वास्तव में सार्थक बनाया जा सके।
मुख्य परीक्षा अभ्यास प्रश्न
“वित्तीय समावेशन का अर्थ केवल बैंक खाते खोलना नहीं है, बल्कि अर्थव्यवस्था में सार्थक भागीदारी है।” विस्तारपूर्वक समझाइए। (250 शब्द, 15 अंक)
परिचय (संदर्भ)
भारत की न्यायिक प्रणाली गंभीर लंबित मामलों से जूझ रही है, सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालयों और अधीनस्थ न्यायालयों में 5 करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं, जिससे समय पर न्याय मिलने को लेकर चिंताएं बढ़ रही हैं।
सुधारों के बावजूद, संरचनात्मक अड़चनें , मानव संसाधन की कमी और अकुशल मामला प्रबंधन के कारण न्याय में देरी हो रही है, जिससे जनता का विश्वास कम हो रहा है और त्वरित न्याय तक पहुंच कमजोर हो रही है।
भारत में लंबित मुकदमे
- लंबित मामलों का अर्थ अदालत द्वारा अनिर्णीत, अनिर्धारित मामला है। लंबित मामलों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है, जो समय पर न्याय देने में न्यायपालिका की अक्षमता को दर्शाता है।
- निष्पक्ष और शीघ्र सुनवाई का अधिकार भारत के संविधान, 1950 के अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) के तहत मौलिक अधिकार के रूप में गारंटीकृत है, न्याय वितरण प्रणाली में देरी इस अधिकार का उल्लंघन करती है।
- विधि आयोग ने कहा कि फ़ैसलों में देरी उतनी ही पुरानी है जितनी कि क़ानून। अत्यधिक देरी से न्याय में चूक होती है और मुक़दमेबाज़ी की लागत बढ़ जाती है।
डेटा:
- जिला एवं अधीनस्थ न्यायालयों में 4.6 करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं।
- उच्च न्यायालयों में 63.3 लाख और सर्वोच्च न्यायालय में 86,700।
- जिला न्यायालय स्तर पर सिविल मामले सबसे अधिक विलंबित होते हैं, जिनमें से केवल 38.7% ही एक वर्ष के भीतर निपट पाते हैं; लगभग 20% मामले 5 वर्षों से अधिक समय तक लटके रहते हैं।
- भारत में प्रति 10 लाख जनसंख्या पर 15 न्यायाधीश हैं; पूर्ण संख्या होने पर भी यह संख्या केवल 19 होगी, जबकि विधि आयोग ने 1987 में 50 न्यायाधीशों की सिफारिश की थी।
- न्यायिक प्रणाली स्वीकृत क्षमता के 79% पर काम कर रही है।
- 2021 और मार्च 2025 के बीच, राष्ट्रीय लोक अदालतों ने 27.5 करोड़ से अधिक मामलों का निपटारा किया, जिनमें 22.21 करोड़ मुकदमे-पूर्व मामले शामिल हैं।
भारत में मामलों के निर्णय में देरी के कारण
भारत की न्यायिक प्रणाली कई संरचनात्मक, प्रक्रियात्मक और प्रशासनिक कारकों के कारण लंबित मामलों की भारी समस्या से ग्रस्त है। इसके प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं:
- न्यायाधीशों और न्यायालय के बुनियादी ढांचे की कमी
- भारत में न्यायाधीश-जनसंख्या अनुपात बहुत कम है – प्रति दस लाख पर लगभग 11 न्यायाधीश, जबकि अमेरिका में यह अनुपात प्रति दस लाख पर 107 है।
- सभी स्तरों पर रिक्तियां लंबे समय तक खाली रहती हैं, जिससे समय पर मामलों का निपटान प्रभावित होता है।
- अकेले अधीनस्थ न्यायालयों को मौजूदा और अतिरिक्त न्यायिक अधिकारियों के समर्थन के लिए 5,000 से अधिक नए न्यायालय कक्षों और लगभग 40,000 कर्मचारियों के पदों की आवश्यकता है
- कई न्यायालयों में बुनियादी ढांचे, प्रशिक्षित कर्मचारियों या डिजिटल केस प्रबंधन प्रणालियों का अभाव है, जिसके परिणामस्वरूप अकुशलता और देरी होती है।
- प्रशासनिक और प्रक्रियात्मक अक्षमताएँ
- केस प्रबंधन उपकरणों की कमी और आईटी प्रणालियों के एकसमान उपयोग का अर्थ है कि मामलों पर कुशलतापूर्वक नज़र नहीं रखी जाती या उन्हें प्राथमिकता नहीं दी जाती।
- न्यायाधीश प्रायः सिविल और आपराधिक दोनों मामलों पर विचार करते हैं, जिससे विशेषज्ञता कम हो जाती है और केस विश्लेषण धीमा हो जाता है।
- बार-बार स्थानांतरण, अनुपस्थिति और वकीलों की हड़ताल से न्यायिक कार्य बाधित होता है।
- कई न्यायालयों में अभी भी पारंपरिक, मैनुअल प्रक्रियाएं ही प्रचलित हैं, जिनमें स्वचालन और गति का अभाव है।
- मामलों की अधिक संख्या और कम निपटान दर
- प्रतिदिन दर्ज होने वाले मामलों की बढ़ती संख्या तथा धीमी निपटान दर, विशेष रूप से अधीनस्थ न्यायालयों में, लंबित मामलों की संख्या में वृद्धि करती है।
- सरकार सबसे बड़ी वादी है, तथा सभी लंबित मामलों में से लगभग आधे मामले उसके पास हैं, तथा प्रायः मंत्रालय या विभाग एक-दूसरे पर मुकदमा करते हैं।
- बड़ी संख्या में तुच्छ या दोहराव वाले मामले, तथा वास्तविक जनहित के बिना दायर की गई जनहित याचिकाएं (पीआईएल) प्रणाली को और अधिक अवरुद्ध कर देती हैं।
- बार-बार स्थगन और मुकदमेबाजी का दुरुपयोग
- वकीलों या वादियों द्वारा जानबूझकर स्थगन, यहां तक कि मामूली मामलों में भी, कार्यवाही में काफी देरी कर देता है।
- प्रक्रियात्मक साधनों का दुरुपयोग तथा झूठे या तुच्छ मामले दायर करने से अदालत का बहुमूल्य समय नष्ट होता है।
- कानूनी और सामाजिक कारक
- नागरिकों में बढ़ती कानूनी जागरूकता और अधिकार-चेतना के कारण मुकदमेबाजी की दर में वृद्धि हुई है।
- आपराधिक मामलों, विशेषकर महिलाओं के विरुद्ध अपराधों में वृद्धि हो रही है, जिससे पुलिस, न्यायपालिका और जेलों पर बोझ बढ़ रहा है।
- कानूनों में लगातार संशोधन तथा जटिल, अतिव्यापी विधानों की व्याख्या और अनुप्रयोग के लिए अधिक न्यायिक समय की आवश्यकता होती है।
- वैकल्पिक विवाद समाधान (एडीआर) प्रोत्साहन का अभाव
- मध्यस्थता, पंचनिर्णय या सुलह जैसे तंत्रों के प्रति अपर्याप्त प्रयास के कारण छोटे-मोटे विवाद न्यायालय प्रणाली में ही अटके रहते हैं।
- एडीआर के प्रति जागरूकता और संस्थागत समर्थन की कमी से औपचारिक मुकदमेबाजी पर निर्भरता बढ़ जाती है।
न्यायिक प्रणाली पर लंबित मामलों का क्या प्रभाव पड़ता है?
- न्याय में देरी न्याय से इनकार के समान है। मामले के निपटारे में देरी संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार का हनन करती है।
- यहां तक कि साधारण सिविल मामलों को भी निपटाने में वर्षों लग जाते हैं; कई आपराधिक मामले 15 वर्षों से अधिक समय से लंबित पड़े हैं, तथा विचाराधीन कैदी जेलों में सड़ रहे हैं।
- लम्बे समय तक लंबित रहने के कारण जेलों में भीड़ बढ़ जाती है, जो प्रायः उनकी क्षमता के 150% से भी अधिक होती है।
- विचाराधीन कैदियों को, जिनमें से अनेक का अपराध अभी तक सिद्ध नहीं हुआ है, लम्बे समय तक जेल में रखा जाता है, जिससे उनके बुनियादी मानवाधिकारों और सम्मान का हनन होता है।
- लम्बी देरी के कारण लोग कानूनी उपाय अपनाने से हतोत्साहित होते हैं, जिससे व्यवस्था में उनका विश्वास खत्म हो जाता है।
- कई लोग धीमी न्यायिक प्रक्रिया से बचने के लिए रिश्वतखोरी या अनौपचारिक समझौते जैसे गैर-कानूनी तरीकों का सहारा लेते हैं, जिससे अप्रत्यक्ष रूप से भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है।
लंबित मामलों को कम करने के लिए सुझाए गए सुधार
1. न्यायालय की क्षमता का विस्तार
- कार्य दिवस और शिफ्ट बढ़ाएँ: सुबह/शाम की शिफ्ट और अतिरिक्त बेंच शुरू करके छुट्टियों सहित अदालत के कामकाज के घंटे बढ़ाएँ
- फास्ट ट्रैक कोर्ट: फास्ट ट्रैक कोर्ट मॉडल का विस्तार आपराधिक मामलों से आगे बढ़ाकर इसमें सिविल और वाणिज्यिक मामले भी शामिल किए जाएं।
2. रिक्तियों को भरना और तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति
- रिक्तियों का लंबित विवरण: सभी स्तरों पर, विशेषकर अधीनस्थ न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति में तेजी लाना।
- तदर्थ नियुक्तियाँ: लंबित मामलों से निपटने के लिए सेवानिवृत्त या योग्य न्यायाधीशों की नियुक्ति हेतु संविधान के अनुच्छेद 127 और 128 के प्रावधानों का उपयोग करें।
3. न्यायालय प्रशासन को मजबूत करना
- न्यायालय प्रबंधकों की नियुक्ति: न्यायाधीशों को प्रशासनिक कार्यों में सहायता प्रदान करने के लिए प्रशिक्षित पेशेवरों की नियुक्ति की जानी चाहिए ताकि वे केवल न्यायिक प्रक्रिया पर ही ध्यान केंद्रित कर सकें।
प्रशिक्षित सहायक कर्मचारी: कुशल न्यायालय प्रबंधन के लिए कुशल लिपिकीय और तकनीकी कर्मचारियों की भर्ती की जानी चाहिए।
4. प्रभावी मामला और समय प्रबंधन
- समयबद्ध निपटान: नियमित मामलों के लिए समय-सीमा निर्धारित करें, जिसे वार्षिक कार्य योजनाओं और निगरानी प्रणालियों द्वारा समर्थित किया जाए।
- स्थगन को हतोत्साहित करना: सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 17 को सख्ती से लागू करें – स्थगन की संख्या तीन तक सीमित करें और देरी के लिए दंड लगाएं।
- तुच्छ मुकदमेबाजी से बचना: न्यायपालिका द्वारा कठोर जांच के माध्यम से आधारहीन मामलों को शीघ्र ही समाप्त कर देना।
5. प्रौद्योगिकी का लाभ उठाना
- डिजिटल न्यायालय: ई-फाइलिंग, वर्चुअल सुनवाई, ऑनलाइन दस्तावेज़ प्रस्तुतीकरण और मामले की स्थिति की वास्तविक समय पर ट्रैकिंग जारी रखें और उसका विस्तार करें।
- एआई का उपयोग: नियमित, दोहराव वाले और पैटर्न-आधारित मामलों (जैसे, ट्रैफिक जुर्माना, चेक बाउंस मामले) के लिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस को तैनात करें।
6. वैकल्पिक विवाद समाधान (एडीआर)
- मध्यस्थता, पंचनिर्णय, लोक अदालतें: मुकदमेबाजी के बोझ को कम करने के लिए अदालत के बाहर समझौते को बढ़ावा देना
- लोक अदालतों की सफलता: 2021 और मार्च 2025 के बीच, लोक अदालतों ने 27.5 करोड़ से अधिक मामलों का निपटारा किया, जिनमें 22.21 करोड़ मुकदमे-पूर्व और 5.34 करोड़ लंबित मामले शामिल हैं।
निष्कर्ष
भारत में समय पर, किफायती और सुलभ न्याय सुनिश्चित करने के लिए न्यायिक सुधार अनिवार्य हैं। लगातार लंबित मामलों और देरी ने न्याय व्यवस्था में जनता का विश्वास कम किया है और संविधान में निहित त्वरित न्याय के सिद्धांत को कमजोर किया है।
बहुआयामी दृष्टिकोण – न्यायालय के बुनियादी ढांचे को मजबूत करना, पर्याप्त न्यायाधीशों की नियुक्ति करना, सख्त समयसीमा लागू करना, प्रौद्योगिकी को एकीकृत करना और मामला प्रबंधन को संस्थागत बनाना – न्यायिक दक्षता में भारी सुधार कर सकता है।
मुख्य परीक्षा अभ्यास प्रश्न
“कई सुधारों के बावजूद, न्यायिक लंबितता भारत में समय पर न्याय तक पहुँच में बाधा बन रही है।” इसके कारणों का समालोचनात्मक विश्लेषण कीजिए और भारत की न्यायिक प्रणाली में होने वाली देरी को दूर करने के उपाय सुझाइए। (250 शब्द, 15 अंक)